ये ख़ामोशी नहीं कुछ और है
ये ख़ामोशी नहीं कुछ और है
ये जो तुम यु ही रूठे हो
इन तन्हांईयो में यु ही खोये हो
उतार दो इस नक़ाब को
क्योकि , ये ख़ामोशी नहीं कुछ और है
बादलों को यु न देखा करो
ये आसमां तुम्हारा है
अपने आप को यु छुपाया ना करो
ये सारा जहां तुम्हारा है
बस , अब बस भी करो
क्योकि , ये ख़ामोशी नहीं कुछ और है
ये जो लफ्जों के जाल है
इनमे क्यों लिपटे हो तुम
बाहर निकलो अपने आप से
खुद में ही क्यों घुट रहे हो तुम
अब तो इन्तहां हो गयी
तुम्हारी इस बेतुकी की
उतार फेकों इस शिकन को
क्योकि, ये ख़ामोशी नहीं कुछ और है
ये जो लफ्जों के जाल है
इनमे क्यों लिपटे हो तुम
बाहर निकलो अपने आप से
खुद में ही क्यों घुट रहे हो तुम
अब तो इन्तहां हो गयी
तुम्हारी इस बेतुकी की
उतार फेकों इस शिकन को
क्योकि, ये ख़ामोशी नहीं कुछ और है
wah janab
ReplyDeletekya khub kahi aapne
thanks
DeleteSunil, tumhara jasne rekhta me intejar rahega
ReplyDeleteji ha, bilkul
Deleteवाह!बहुत बेहतरीन कविता लिखी है आपने!भविष्य के लिए शुभकामनाए!
ReplyDeletethanks Govind,
DeleteNice lines ❤...
ReplyDeleteSir brilliant 😄
ReplyDelete