ये ख़ामोशी नहीं कुछ और है

ये ख़ामोशी नहीं कुछ और है



ये जो तुम यु ही रूठे हो
इन तन्हांईयो में यु ही खोये हो
उतार दो इस नक़ाब को
क्योकि , ये ख़ामोशी नहीं कुछ और है

बादलों को यु न देखा करो
ये आसमां तुम्हारा है
अपने आप को यु छुपाया ना करो
ये सारा जहां तुम्हारा है
बस , अब बस भी करो
क्योकि , ये ख़ामोशी नहीं कुछ और है

ये जो लफ्जों के जाल है
इनमे क्यों लिपटे हो तुम
बाहर निकलो अपने आप से
खुद में ही क्यों घुट रहे हो तुम
अब तो इन्तहां हो गयी
तुम्हारी इस बेतुकी की
उतार फेकों इस शिकन को
क्योकि, ये ख़ामोशी नहीं कुछ और है



Comments

  1. wah janab
    kya khub kahi aapne

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  2. Sunil, tumhara jasne rekhta me intejar rahega

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  3. गोविन्द18 February 2018 at 01:35

    वाह!बहुत बेहतरीन कविता लिखी है आपने!भविष्य के लिए शुभकामनाए!

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